रात गुज़री तो यक़ीं था कि सवेरा होगा क्या ख़बर थी कि वही घोर-अँधेरा होगा राह में जिन से था साया वो शजर सूख गए अब ख़ुदा जाने कहाँ अपना बसेरा होगा ना-शनासान-ए-मोहब्बत से तवक़्क़ो है फ़ुज़ूल जो ख़ुद अपना न हुआ किस तरह मेरा होगा हम-नशीनो शब-ए-फ़ुर्क़त को ग़नीमत समझो अब कोई शाम न होगी न सवेरा होगा आस्तीनों में है साँप अपने छुपाए जो शख़्स वो मिरा दोस्त हो क्यों कोई सपेरा होगा तूल खींचा है बहुत तीरा-शबी ने लेकिन तबल-ए-सुब्ह के बजते ही सवेरा होगा सुब्ह-ए-सादिक़ की शुआएँ ये बताती हैं 'वफ़ा' सुब्ह-ए-काज़िब का बस अब दूर अंधेरा होगा