मुझे सुनो कि हदीस-ए-ग़ज़ल-नुमा हूँ मैं मुझे पढ़ो वरक़-ए-मुसहफ़-ए-वफ़ा हूँ में मिलेगी इस में तुम्हें अपने दिल की धड़कन भी किसी के क़ल्ब-ए-शिकस्ता की इक सदा हूँ मैं तमाम रात जो लड़ता रहा अँधेरों में हरीम-ए-इश्क़ का वो आख़िरी दिया हूँ मैं बढ़ा हुआ है ज़माने में कारोबार का क़द कि अपने क़द से भी कुछ और घट गया हूँ मैं हर एक मिलता है मुझ से अब अजनबी की तरह ख़ुद अपने शहर में बेगाना बन गया हूँ मैं अब अपनी शक्ल भी पहचान में नहीं आती कभी जो भूले से आईना देखता हूँ मैं न फ़लसफ़ी न मुफ़क्किर न मुज्तहिद न ख़तीब 'वफ़ा' ये कुछ भी नहीं हूँ मगर वफ़ा हूँ मैं