रात का सन्नाटा हो और राज़-दाँ कोई न हो बीवियाँ तन्हा ही घूमें और मियाँ कोई न हो मम्लिकत को फ़िक्र-ए-तामीर-ए-मकाँ कोई न हो हों पड़े फ़ुटपाथ पे सब आशियाँ कोई न हो है यही जी में कि हम सब ख़ाना-जंगी में मरें मुल्क पे मिटने की ख़ातिर ख़ानदाँ कोई न हो आपा-धापी की फ़ज़ा हो जो भी चाहे लूट ले राहबर ना-बीना हों सब पासबाँ कोई न हो आँख से देखा न जाए अक़्ल पर पर्दा पड़े वो किसी से भी मिलें मुझ को गुमाँ कोई न हो जब हुई इक लड़की इग़वा शैख़ ने दी बद-दुआ' इस गली का लौंडा या-रब अब जवाँ कोई न हो चाक़ू छुरियाँ हाल में लाने के हम क़ाइल नहीं है यही काफ़ी कि बस अब इम्तिहाँ कोई न हो रिश्वतों का ख़त्म हो पाए न कोई सिलसिला सी बी आई ढूँढती हो पर निशाँ कोई न हो बक गया है 'राज़' क्या क्या दोस्तों के दरमियाँ बे-हया मुँह-फट और ऐसा बद-ज़बाँ कोई न हो