रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा इक दिया जलाएगा सौ दिए बुझा देगा मुद्दतें हुई मुझ से घर छुड़ा दिया मेरा क्या ज़माना अब तेरा साथ भी छुड़ा देगा सब के नक़ली चेहरे हैं सब का एक आलम है कोई इस ज़माने में किस को आइना देगा मैं अभी तो मुजरिम हूँ आप अपना क़ातिल हूँ काँप उठेगा मुंसिफ़ भी जब मुझे सज़ा देगा जो दिया तअ'स्सुब का तुम जला के आए हो सुब्ह तक न जाने वो कितने घर जला देगा जानता हूँ मैं उस की सादगी-ओ-मासूमी वो मिरा कबूतर भी हाथ से उड़ा देगा उस के पास मोती हैं मेरे पास आँसू हैं मैं अभी से क्या कह दूँ कौन किस को क्या देगा उस से अब जो पूछूँगा उस का हाल ऐ 'साग़र' कोई शेर मेरा ही वो मुझे सुना देगा