रात की आँख में मेरे लिए कुछ ख़्वाब भी थे ये अलग बात कि हर ख़्वाब में गिर्दाब भी थे ज़िंदगी बाँझ सी औरत थी कि जिस के दिल में बूँद की प्यास भी थी आँख में सैलाब भी थे ज़ख़्म क्यों रिसने लगे इक तिरे छू लेने से दुख समुंदर थे मगर मौजा-ए-पायाब भी थे चाँद की किरनों में आहट तिरे क़दमों की सुनी और फिर चाँद के ढल जाने को बेताब भी थे कितना आबाद मिरे साथ था सायों का हुजूम कैसे तन्हाई के सहरा थे जो शादाब भी थे