रात तो बीत चुकी फिर भी नशा तारी है क्या कोई कश्मकश-ए-ख़्वाब-ओ-ख़बर जारी है क्यों न सरशार करे साज़-ए-ख़मोशी मुझ को मस्त हूँ जिस से वो नश्शा मिरी नादारी है बाग़-ए-इम्काँ कोई पर्दा है कि जिस के ओझल एक ही गुल है यहाँ जिस की महक सारी है इक ज़ियाँ जान का होता तो कोई बात न थी उस से मिलने में कई तरह की दुश्वारी है