पस्त-ओ-बुलंद सारा हमवार कर के लौटे इस बार हम उसे ही सरशार कर के लौटे अब मंज़िल-ए-जुनूँ को सर कर के देखना क्या निकले तो थे हज़ारों दो-चार कर के लौटे उस अर्सा-ए-हवा का अब तक है बोझ दिल पर अच्छा हुआ जो ख़ुद को बेज़ार करके लौटे कब तक न साफ़ करते उन से हिसाब-ए-हिज्राँ उस बार था जो बाक़ी इस बार कर के लौटे क्या मुफ़्त है ये सौदा जो चाहे उस गली में जाँ नक़्द ले के जाए दीदार कर के लौटे जाते हैं लोग ऐसे थक-हार कर जहाँ से घर अपने जैसे कोई बाज़ार कर के लौटे