रात-दिन लब पे न हो क्यूँकि बयान-ए-देहली न मकीं अब वो रहे और न मकान-ए-देहली बाज़ मक़्तूल हुए बाज़ों ने फाँसी पाई नाम को भी न रहे पीर-ओ-जवान-ए-देहली शिकवा बे-फ़ाएदा करता है किसी का हमदम था मुक़द्दर में लिखा यूँ ही ज़ियान-ए-देहली नहीं बाज़ार-ए-मोहब्बत में ख़रीदारी-ए-दिल छान डाली है हर इक मैं ने दुकान-ए-देहली न वो अर्बाब-ए-तरब हैं न वो हैं अहल-ए-निशात हाँ नज़र आते हैं कुछ मर्सिया-ख़्वान-ए-देहली ग़म्ज़ा था आफ़त-ए-जाँ और क़यामत-क़ामत अजब अंदाज़ के थे माह-रुख़ान-ए-देहली घिस के संदल का लगाना जिन्हें दर्द-ए-सर था दिल पे रखते हैं वो अंदोह-ए-गरान-ए-देहली फ़र्श-ए-गुल पे जो झिजकते थे क़दम रखते हुए चलते काँटों पे हैं वो नाज़ुकनान-ए-देहली ग़श पे ग़श आते अगर देखते हज़रत-यूसुफ़ ऐसे अंदाज़ के थे कज-कुलहान-ए-देहली झुक गया चर्ख़ ख़जिल हो के क़दम-बोसी को उस ने देखी थी कभी रिफ़अत-शान-ए-देहली होश जाते रहे थर्रा गई नार-ए-दोज़ख़ पहुँची अफ़्लाक पे जब आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-देहली ख़ाक जल-भुन के तो हो जाएगा चर्ख़-ए-बद-बीं नाला कर बैठे जो दिल-सोख़्त-गान-ए-देहली कुछ अजब नक़्शा यहाँ का नज़र आता है मुझे क्यूँकि दिल्ली पे किया जाए गुमान-ए-देहली और शहरों के करें लाख तकल्लुफ़ लेकिन नहीं होने की मयस्सर ये ज़बान-ए-देहली हैं नए रंग नए रूप जहाँ के 'मेहदी' कफ़-ए-अफ़्सोस है और लाला-रुख़ान-ए-देहली