राज़ अश्कों का छुपाऊँ तो छुपा भी न सकूँ और जलते हुए दामन को बचा भी न सकूँ जाने क्या ग़ैर की महफ़िल में है सामान-ए-नशात दिल-ओ-जाँ दे के जो तेरे लिए ला भी न सकूँ ऐ मिरे अज़्म-ए-सफ़र क्या तुझे मौत आई है शहर-ए-क़ातिल में न रह पाऊँ तो जा भी न सकूँ शौक़-ए-बेबाक ने सोचा न था सज्दों का मआल ग़ैरत-ए-वज़्अ से अब सर को उठा भी न सकूँ तेरी बख़्शिश का ये अंदाज़ है क्या ऐ साक़ी बे-पिए भी न बने जाम उठा भी न सकूँ दस्त-ए-महबूब पे भी रंग-ए-हिना बार हुआ ख़ाक में ख़ून-ए-तमन्ना को मिला भी न सकूँ कहना ख़ामोशी-ए-सहरा से ये 'जौहर' का पयाम ऐसा मजबूर नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ