रफ़्त ओ आमद बना रहा हूँ मैं राह-ए-मक़्सद बना रहा हूँ मैं काम में ला के कुछ ख़स-ओ-ख़ाशाक अपनी मसनद बना रहा हूँ मैं ज़िंदगी जुर्म तो नहीं लेकिन हो के सरज़द बना रहा हूँ मैं यूँही बेकार मैं पड़ा ख़ुद को कार-आमद बना रहा हूँ मैं गोया अपनी हुदूद से बढ़ कर अपनी सरहद बना रहा हूँ मैं कर रहा हूँ हयात-ए-नौ तामीर अपना मरक़द बना रहा हूँ मैं दे रहा हूँ जिला शरारों को ख़ुद को मूबद बना रहा हूँ मैं माह की आज फिर गहन बन कर ताब-ए-असवद बना रहा हूँ मैं मुन्हरिफ़ हो के उस की चाहत से ख़ुद को मुर्तद बना रहा हूँ मैं वो कि बन पा नहीं रहा मुझ से जो कि शायद बना रहा हूँ मैं उग रहा हूँ मैं और साथ अपने सर पे बरगद बना रहा हूँ मैं