रफ़्ता रफ़्ता आरज़ूओं का ज़ियाँ होने को है दरहमी कुछ ऐसी ज़ेर-ए-आसमाँ होने को है पा-शिकस्ता हो गए हैं हम कड़कती धूप में शाम-ए-ग़म अब देखिए कब और कहाँ होने को है बे-रुख़ी गर आप की ऐ जान-ए-जाँ यूँ ही रही आख़िरश कार-ए-वफ़ा दिल पर गराँ होने को है डर है दिल आसूदा-ए-हिरमाँ न हो जाए कहीं आग थी रौशन जहाँ वो ख़ाक-दाँ होने को है चश्मक-ए-बर्क़-ओ-शरर से रात आँखों में कटी सुन रहे हैं सुब्ह-ए-नौ अब ज़रफ़िशाँ होने को है कल तलक तो चल रही थी दिल-जलों की दास्ताँ आज उन का ज़िक्र ज़ेब-ए-दास्ताँ होने को है इस क़दर है हसरत-ए-नाकाम का 'राही' ग़ुबार नक़्श-पा-ए-आरज़ू भी बे-निशाँ होने को है