रफ़्तार रौशनी की मुसख़्ख़र न कर सके साए को अपने क़द के बराबर न कर सके जिस्मों पे शख़्सियत की तहें जम के रह गईं ख़ुद को हम अपनी ज़ात से बाहर न कर सके माहौल की गिरफ़्त भी किस दर्जा सख़्त थी अपनी सलाहियत हम उजागर न कर सके था इज़्तिराब दिल का कुछ ऐसा मोआमला हम इंतिज़ार-ए-जल्वा-ए-महशर न कर सके सूरज की रौशनी को मुक़य्यद तो कर लिया दिल का सियाह-ख़ाना मुनव्वर न कर सके जज़्बात गरचे शे'र के क़ालिब में ढल गए लफ़्ज़ों के ऊँच नीच बराबर न कर सके हम आने वाली नस्ल से शर्मिंदा हैं 'असर' इंसानियत का नाम उजागर न कर सके