तिरे जमाल का परतव मिरे बयाँ में कहाँ वो दिलकशी मिरी बे-रब्त दास्ताँ में कहाँ कहाँ वो फूल जिन्हें ज़ीनत-ए-चमन कहिए हरी भरी कोई अब शाख़ गुल्सिताँ में कहाँ सुकून-ए-दिल की तलब किस जगह मुझे लाई सुकून-ए-दिल भला इस शहर-ए-बे-अमाँ में कहाँ ख़ुद अपने घर का पता पूछना पड़ा मुझ को बहक कर आ गया उजड़े हुए मकाँ में कहाँ वो रुत गई मिरी दीवानगी की उम्र के साथ बहार जैसी फ़ज़ा मौसम-ए-ख़िज़ाँ में कहाँ कोई तलब न कोई आरज़ू न कोई हवस ये बे-नियाज़ी-ए-फ़ितरत भी इंस-ओ-जाँ में कहाँ उठाए फिरता है क्यों बोझ ज़िंदगी का 'असर' सकत अब इतनी तिरे जिस्म-ए-ना-तवाँ में कहाँ