राह-ए-सफ़र में आज ये मंज़र भी आएगा गुलशन के साथ जलता हुआ घर भी आएगा ऐ हम-सफ़र अभी से सफ़र की तकान क्यों दश्त-ए-जुनूँ में ग़म का समुंदर भी आएगा बस्ती जला रहे हैं मगर ये रहे ख़याल शो'लों की ज़द में आप का ये घर भी आएगा तन्हाई ही सही न रुकें राह में क़दम मंज़िल निगाह में हो तो रहबर भी आएगा ये चश्म-ए-कैफ़-ए-यार तग़ाफ़ुल के साथ साथ इल्ज़ाम-ए-क़त्ल अब तो तिरे सर भी आएगा तो यूँ मिरी वफ़ाओं का अब इम्तिहाँ न ले मेरे लहू से तर तिरा ख़ंजर भी आएगा तूफ़ाँ की सम्त ले न चलो कारवाँ अभी आँधी की ज़द में नाक़ा-ए-रहबर भी आएगा माना है दश्त-ए-शौक़ बहुत पुर-ख़तर 'ज़फ़र' लेकिन वहाँ ग़मों का ये ख़ूगर भी आएगा