रह-ए-वफ़ा में ब-सद-शौक़ जब भी हम निकले क़दम क़दम पे सभी माइल-ए-सितम निकले नहीं ये गेसू-ए-जानाँ ये ज़ुल्फ़-ए-गीती है हर एक बीच में पिन्हाँ हज़ारों ख़म निकले अना-पसंदी-ए-फ़ितरत को अब क़रार कहाँ बहिश्त छोड़ के मुश्किल सफ़र पे हम निकले मिली न मंज़िल-ए-जानाँ रखे न पा-ए-तलब क़दम क़दम पे मुक़द्दर के पेच-ओ-ख़म निकले जुनून-ए-शौक़ में जिन को समझ रहा था ख़ुदा पड़ा जो वक़्त तो मिट्टी के वो सनम निकले तमाम उम्र चले साथ फिर भी साथ थे कब 'मजीद' ख़ूब तुम्हारे ये हम-क़दम निकले