राह में सूरत-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा रहता हूँ हर घड़ी बनने बिगड़ने को पड़ा रहता हूँ उम्र-ए-रफ़्ता न कभी आए मनाने के लिए मुद्दतें गुज़रीं कि जीने से ख़फ़ा रहता हूँ सिफ़त-ए-कीना मिरा घर है फ़लक के दिल में गिरह-ए-दुश्मन-ए-ख़ातिर में बंधा रहता हूँ फ़ित्ना-ए-हश्र ये कहता है मुझे पूछे कौन दामन-ए-यार के गोशा में पड़ा रहता हूँ क़ैद हूँ पर सितम-ए-ग़फ़लत-ए-जौहर से 'मुनीर' ग़ुस्सा बन कर दिल-ए-ज़िंदाँ में भरा रहता हूँ