रह रह के होती जाती है दुनिया तमाम-शुद होता नहीं है इश्क़ का क़िस्सा तमाम-शुद प्यासे तो अपने होंट भिगो कर चले गए लेकिन हवस से कब हुआ दरिया तमाम-शुद बिखरा के मोती इश्क़ के हर नक़्श-ए-पा के साथ उस ने किया है दश्त-ए-तमन्ना तमाम-शुद गिरता है एक पर्दा अंधेरे का ज़ीस्त पर होता है रोज़ एक तमाशा तमाम-शुद कुछ भी नहीं बचेगा जहाँ में सिवा-ए-इश्क़ मजनूँ तमाम हो गया लैला तमाम-शुद ग़ुंचो की मौज उस के तबस्सुम पे है अयाँ कर देगी मेरी आँखों का सहरा तमाम-शुद आँखों में ले के फिरती है नाज़-ओ-अदा के रंग लहरा के खींच लूँ तो हो सहबा तमाम-शुद इक ज़ख़्म जिस में तीर भी पाया गया न जज़्ब उस पर हुआ है इल्म-ए-मसीहा तमाम-शुद डूबेंगे एक क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ ही में हम सभी होगी हर एक हस्ती-ए-अश्या तमाम-शुद कह कर गया ये आशिक़ बेदार अर्श से हम जा रहे हैं तुम करो चर्चा तमाम-शुद उट्ठेगी जब भी मौज क़यामत की तब 'नदीम' का'बा तमाम होगा कलीसा तमाम-शुद