रहे है आज कल कुछ इस तरह चर्ख़-ए-कुहन बिगड़ा मरे ही आशियाँ से जैसे ये नज़्म-ए-चमन बिगड़ा कहाँ गुज़री है सारी रात कुछ हम भी सुनें आख़िर ये रुख़ ये चाँदनी छिटकी ये तार-ए-पैरहन बिगड़ा बरस कर रह गईं कलियाँ चमन के फ़र्श-ए-रंगीं पर पकड़ कर शाख़ जब कल शाम वो ग़ुंचा-दहन बिगड़ा तिरी नज़रों ही तक था सब सलीक़ा अहल-ए-महफ़िल का तिरे उठते ही जान-ए-हुस्न रंग-ए-अंजुमन बिगड़ा किसे आता था जीना इस से पहले तेरी दुनिया में सँवारा है मोहब्बत ने मज़ाक़-ए-रूह-ओ-तन बिगड़ा गिला था बेवफ़ाई का हमें पर उन से क्या कहिए वो कहते हैं कि है कुछ इन दिनों तेरा चलन बिगड़ा