रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर वही निकले सरीर-आरा क़यामत में ख़ुदा हो कर हक़ीक़त-दर-हक़ीक़त बुत-कदे में है न काबे में निगाह-ए-शौक़ धोके दे रही है रहनुमा हो कर मआल-ए-कार से गुलशन की हर पत्ती लरज़ती है कि आख़िर रंग-ओ-बू उड़ जाएँगे इक दिन हवा हो कर अभी कल तक जवानी के ख़ुमिस्ताँ थे निगाहों में ये दुनिया दो ही दिन में रह गई है क्या से क्या हो कर मिरे सज्दों की या रब तिश्ना-कामी क्यूँ नहीं जाती ये क्या बे-ए'तिनाई अपने बंदे से ख़ुदा हो कर सिरिश्त-ए-दिल में किस ने कूट कर भर दी है बेताबी अज़ल में कौन या रब मुझ से बैठा था ख़फ़ा हो कर ये पिछली रात ये ख़ामोशियाँ ये डूबते तारे निगाह-ए-शौक़ बहकी फिर रही है इल्तिजा हो कर बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हमेशा बे-वफ़ाओं से मिलेंगे बा-वफ़ा हो कर