राह-ए-सफ़र में चीज़ कोई क्या थी मेरे पास बस मैं था और वुसअत-ए-सहरा थी मेरे पास था मेरे पास घटती हुई ज़िंदगी का रंज और एक लम्बी ख़्वाहिश-ए-दुनिया थी मेरे पास अपना हर इक नज़ारा दिखाना पड़ा उसे करता वो क्या कि चश्म-ए-तमाशा थी मेरे पास तपते हुए दिनों में कहीं थी ख़ुनुक हवा और सर्दियों में आग सी बरपा थी मेरे पास क्या चीज़ थी जो घुलती रही बहते वक़्त में पल पल बदलती रंगत-ए-दरिया थी मेरे पास कैसे बिगड़ गई उसे किस ने बदल दिया 'शाहीं' जो एक सूरत-ए-फ़र्दा थी मेरे पास