सवाल छोड़ कि हालत ये क्यूँ बनाई है उसे न सुन जो कहानी सुनी-सुनाई है पतंगा शम्अ' पे मरता है क्या बुराई है उसे किसी ने भी रोका है जिस की आई है हँसे हैं गुल न कली कोई मुस्कुराई है हुज़ूर कैसे ये कह दूँ बहार आई है ज़रूर कोई अलामत क़ज़ा की पाई है मुझे अज़ीज़ों ने सूरत तिरी दिखाई है न जाने हिज्र की रात और मिरी सियह-बख़्ती कहाँ कहाँ के अँधेरे समेट लाई है लहद से कब उठें देखो मुसाफ़िरान-ए-अदम सफ़र है दूर का रस्ते में नींद आई है असीर क्या कहें सय्याद ये तो समझा दे क़फ़स में बू-ए-चमन पूछने को आई है मुझे न छेड़ क़यामत है मेरी आहों में ख़ुदा रखे तिरी महफ़िल सजी-सजाई है