रह-ए-तलब में हमें ग़म पे ग़म नज़र आए ब-क़द्र-ए-ज़ौक़ मगर फिर भी कम नज़र आए वहीं वहीं मिरा ज़ौक़-ए-सुजूद मचला है जहाँ जहाँ तिरे नक़्श-ए-क़दम नज़र आए मिरे शुऊर की आँखों में आ गए आँसू मुझे असीर-ए-अलम जब सनम नज़र आए तिरी तलाश में ये भी मक़ाम आया है जिधर निगाह उठी सिर्फ़ हम नज़र आए वो जल्वा-बार हैं दिल के निगार-ख़ाने में जो मेरी चश्म-ए-तमाशा को कम नज़र आए