रहगुज़र हो या मुसाफ़िर नींद जिस को आए है गर्द की मैली सी चादर ओढ़ के सो जाए है क़ुर्बतें ही क़ुर्बतें हैं दूरियाँ ही दूरियाँ आरज़ू जादू के सहरा में मुझे दौड़ाए है वक़्त के हाथों ज़मीर-ए-शहर भी मारा गया रफ़्ता रफ़्ता मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़रती जाए है मेरी आशुफ़्ता-सरी वज्ह-ए-शनासाई हुई मुझ से मिलने रोज़ कोई हादिसा आ जाए है यूँ तो इक हर्फ़-ए-तसल्ली भी बड़ी शय है मगर ऐसा लगता है वफ़ा बे-आबरू हो जाए है ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ देती हैं ख़्वाबों को जनम तिश्नगी सहरा में दरिया का समाँ दिखलाए है किस तरह दस्त-ए-हुनर में बोलने लगते हैं रंग मदरसे वालों को 'ताबाँ' कौन समझा पाए है