रहीन-ए-दस्त-ए-आज़र हो गया हूँ मैं आईना था पत्थर हो गया हूँ मिरा तो काम क़तरे से भी चलता तिरी ख़ातिर समुंदर हो गया हूँ जो बातिन है वही ज़ाहिर है मेरा कुछ ऐसा साफ़ मंज़र हो गया हूँ कई जहतों से है यलग़ार मुझ पर तन-ए-तन्हा मैं लश्कर हो गया हूँ चले हैं साथ ही घर के मसाइल कभी जब घर से बाहर हो गया हूँ रहा है नाज़ जिन को अपने क़द पर खड़ा उन के बराबर हो गया हूँ मुझे तस्लीम है ये 'शान' साहिब सुख़न-साज़ी का दफ़्तर हो गया हूँ