रहने दे रतजगों में परेशाँ मज़ीद उसे लगने दे एक और भी ज़र्ब-ए-शदीद उसे जी हाँ वो इक चराग़ जो सूरज था रात का तारीकियों ने मिल के किया है शहीद उसे फ़ाक़े न झुग्गियों से सड़क पर निकल पड़ें आफ़त में डाल दे न ये बोहरान-ए-ईद उसे फ़र्त-ए-ख़ुशी से वो कहीं आँखें न फोड़ ले आराम से सुनाओ सहर की नवीद उसे हर-चंद अपने क़त्ल में शामिल वो ख़ुद भी था फिर भी गवाह मिल न सके चश्म-दीद उसे बाज़ार अगर है गर्म तो कर्तब कोई दिखा सब गाहकों से आँख बचा कर ख़रीद उसे मुद्दत से पी नहीं है तो फिर फ़ाएदा उठा वो चल के आ गया है तो कर ले कशीद उसे मश्कूक अगर है ख़त की लिखाई तो क्या हुआ जाली बना के भेज दे तू भी रसीद उसे