रहने दिया न चैन से लैल-ओ-नहार ने मारा ग़म-ए-हयात-ओ-ग़म-ए-रोज़गार ने इक कैफ़ पा लिया है दिल-ए-बे-क़रार ने फिर गुदगुदा दिया है नसीम-ए-बहार ने जल्वों की ताब ला न सका बज़्म-ए-नाज़ में खोया ख़ुद ए'तिबार दिल-ए-बे-क़रार ने छेड़े न कोई मेरी मोहब्बत की दास्ताँ खाया है ताज़ा ज़ख़्म दिल-ए-दाग़-दार ने दुनिया का ग़म कभी ग़म-ए-उक़्बा कभी रहा पाया न चैन मेरे दिल-ए-बे-क़रार ने दामन से उन के लिपटी कभी रुख़ से जा लगी क्या क्या मज़े न लूटे हैं मुश्त-ए-ग़ुबार ने उट्ठी कभी नक़ाब तो खिल उट्ठी चाँदनी जल्वे बिखेर डाले हैं रुख़्सार-ए-यार ने मिलता जो उम्र भर न मुझे वस्ल-ए-यार से वो कैफ़ दे दिया है तिरे इंतिज़ार ने दुनिया-ए-इश्क में वही साबित-क़दम रहा बख़्शा जुनून-ए-इश्क़ जिसे तेरे प्यार ने आता नहीं है आज भी वो सामने 'शफ़ीअ'' बख़्शा जहान को तो उसी पर्दा-दार ने