मयस्सर अगर दर तुम्हारा न होता तो सज्दा अदा फिर हमारा न होता मिरा क़ल्ब-ए-मुज़्तर न तस्कीन पाता जो जल्वा तिरा आश्कारा न होता चमन में ये रंगीनियाँ भी न होतीं अगर ख़ून शामिल हमारा न होता यक़ीनन वफ़ा की मिरी क़द्र करते जफ़ा-जू अगर दिल तुम्हारा न होता बिगड़ जाता हमदम मिज़ाज-ए-ज़माना जो ज़ुल्फ़ों को तुम ने सँवारा न होता बचाते जो ख़ुद को निगाह-ए-बुताँ से मोहब्बत में दिल पारा पारा न होता निहाँ आतिश-ए-ग़म जो होती न दिल में तो आँसू निकल कर शरारा न होता भरम टूट जाता वफ़ाओं का मेरी अगर ज़ब्त का दिल को यारा न होता निगाह-ए-करम काम आती न मेरे तो महशर में कोई हमारा न होता कभी भी न मंसूर कहते अनल-हक़ जो शामिल तुम्हारा इशारा न होता उलझना 'शफ़ीअ'' दाम-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ में ख़ुदा को हमारे गवारा न होता