रहोगे हम से कब तक बे-ख़बर से जुदा होती नहीं दीवार दर से मुसाफ़िर हाल क्या अपना सुनाए अभी लौटा नहीं अपने सफ़र से हमेशा तो नहीं रहता है क़ाएम तअ'ल्लुक़ राह-रौ का रहगुज़र से मकानों से मकीं रुख़्सत हुए हैं उदासी झाँकती है बाम-ओ-दर से अभी तक हूँ सफ़र में इर्तिक़ा के मुझे लगते थे रस्ते मुख़्तसर से इसी मिट्टी से है पहचान मेरी मोहब्बत है मुझे भी अपने घर से न जाने उन पे क्या गुज़री थी 'शाहिद' जुदा पत्ते हुए थे जब शजर से