रहता है ज़ुल्फ़-ए-यार मिरे मन से मन लगा ऐ नाग तिरे हाथ ये क्या ख़ूब मन लगा देखा है जिन ने रू-ए-दिल-अफ़रोज़ को तिरे बे-शक नज़र में बाग़-ए-इरम उस की बन लगा सरसब्ज़ नित रखेंगे उन्हें मेरे अश्क ओ आह ऐ नौ-बहार-ए-हुस्न जो चाहे चमन लगा सीना सिपर कर आऊँगा कूचे में मैं तिरे गरचे रक़ीब बैठे हैं वाँ तन से तन लगा क्या फ़ाएदा है क़िस्सा-ए-रिज़वान से तुझे कोई शम्अ-रू परी सते तू भी लगन लगा 'आगाह' ख़ार ख़ार जुदाई से है हज़ीं यक-बार तू गले से उसे गुल-बदन लगा