रेल आई मुसाफ़िर जुदा हो गया By Ghazal << इधर कुछ और कहती है उधर कु... यूँ नज़र-अंदाज़ कर के ज़ु... >> रेल आई मुसाफ़िर जुदा हो गया हक़ हमारा तुम्हारा अदा हो गया जिस्म परछाईं था नूर में उड़ गया देखते देखते मैं ख़ुदा हो गया ढलते सूरज के आगे सदा दोस्तो साया-ए-जिस्म मेरा बड़ा हो गया बिजलियों के अँधेरों में हम खो गए दूर मिट्टी का जब से दिया हो गया Share on: