यूँ नज़र-अंदाज़ कर के ज़ुल्म ढाया है बहुत बे-रुख़ी ने तेरी मुझ को आज़माया है बहुत तुम भी समझौता करो अपनी मोहब्बत के लिए मैं ने भी इस के लिए ख़ुद को झुकाया है बहुत दो दिनों की थी मोहब्बत चार दिन की ज़िंदगी चार के चारों ही दिन उस ने रुलाया है बहुत बैठ कर तुम ने पराई महफ़िलों में जान-ए-जाँ बारहा यूँ ख़ून को मेरे जलाया है बहुत मैं ने तो सोचा था तुझ को भूल जाऊँगा मगर तू तो पहले से भी लेकिन याद आया है बहुत इक नज़र दीदार हो जाए तिरा बस इस लिए बारहा आ तेरे दर को खटखटाया है बहुत अब कि 'नाक़िर' रूठा है वो छोड़ जाने के लिए जान कर भी सब उसे मैं ने मनाया है बहुत