राज़-ए-उल्फ़त अयाँ न हो जाए सई-ए-ग़म राएगाँ न हो जाए ना-उमीदी है अब तो वज्ह-ए-सुकूँ फिर कोई मेहरबाँ न हो जाए निगह-ए-लुत्फ़ से न देख हमें फिर तमन्ना जवाँ न हो जाए हम हैं नाज़ाँ वफ़ा पे वो शाकी यूँ कोई बद-गुमाँ न हो जाए हम तो मरते हैं ऐ वफ़ा वालो ख़त्म ये दास्ताँ न हो जाए ख़ाकसारों को तो हक़ीर न जान ये ज़मीं आसमाँ न हो जाए ऐ नशेमन को कोसने वालो बर्क़ ख़ुद आशियाँ न हो जाए तेरे अशआ'र की ज़मीन 'सहर' ग़ैरत-ए-आसमाँ न हो जाए