रक़्साँ शरार-ए-दिल तिरी मौज-ए-सुख़न से था तन्हाई में ये क़ुर्ब तिरी अंजुमन से था मेरा सुख़न ही था मिरा सरमाया-ए-हयात फिर मैं हुआ शहीद भी अपने सुख़न से था दानिश्वरी का ज़हर न था मुझ पे कारगर मेरे लिबास-ए-ख़ास ख़िरद के कफ़न से था लुटने से भी सिवा था शिकस्त-ए-यक़ीं का ग़म शब-ख़ूँ का एहतिमाल तो था राहज़न से था थे यार-ए-तेज़-गाम भी जादा-शनास भी रुख़ उन का जो भी था वो हवा के चलन से था उन से बिछड़ के हूँ कोई आवारा रूह मैं गोया मिरा वजूद उन्हीं के बदन से था गुलचीन-ओ-बाग़बाँ ही नहीं वारिस-ए-चमन मुर्ग़ान-ए-नग़्मा-ख़्वाँ का भी रिश्ता चमन से था