रख़्त-ए-सफ़र को खोल कर अब हूँ क़याम के क़रीब धूप के दश्त से परे क़र्या-ए-शाम के क़रीब शाख़ से खींच कर मुझे लाई है भूक ख़ाक पर रिज़्क़ उठाऊँ किस तरह रक्खा है दाम के क़रीब पूछा जो मैं ने कौन है हुर्मत-ए-लफ़्ज़ का अमीं उस ने कहा ये बोझ है तेरे ही नाम के क़रीब ये दिन जो पूरा वस्त से है मिरे घर के सेहन में इस की सहर है दर के पास शाम है बाम के क़रीब ये जो हैं ज़र्द साअतें सब्ज़ा है उन की नोक पर ये जो सफ़ेद चुप सी है अब है कलाम के क़रीब कितनी इमारतें खड़ी की हैं हवा को खोद कर 'शाहीं' ये काम तो नहीं फिर भी है काम के क़रीब