रखे हैं आप हाथ जहाँ अब वहाँ नहीं हम क्या बताएँ दर्द कहाँ है कहाँ नहीं दिल ले गए वो दर्द-ए-मोहब्बत कहाँ रहे इबरत का है महल कि मकीं है मकाँ नहीं ए बर्क़ किस के वास्ते बेताब आज है इस बाग़ में मिरा तो कहीं आशियाँ नहीं क़ातिल समझ के आज ज़रा तेग़-ए-नाज़ खींच ये इम्तिहाँ तिरा है मिरा इम्तिहाँ नहीं छूटेंगे उम्र भर तिरी ज़ुल्फ़ों के क्या असीर काटे कटें किसी के ये वो बेड़ियाँ नहीं लो इक जहाँ उन्हीं का तरफ़-दार हो गया महशर में आज कोई मिरा हम-ज़बाँ नहीं दुनिया में हश्र उठे भी तो क्या देख कर उठे मिरे मज़ार का तो कहीं भी निशाँ नहीं तुम क्या बदल गए ज़माना बदल गया अब वो ज़मीं नहीं है वो अब आसमाँ नहीं मस्कन ज़मीन शेर में 'सफ़दर' बना लिया रहते हैं उस ज़मीं पे जहाँ आसमाँ नहीं