रखी है हुस्न पे बुनियाद-ए-आशिक़ी मैं ने ख़ुशी से मौत को दे दी है ज़िंदगी मैं ने किया कभी न सिवा तेरे ग़ैर को सज्दा ख़राब-ए-शिर्क न की रस्म-ए-बंदगी मैं ने ख़ुदाई मिल गई सरकार-ए-इश्क़ से मुझ को ख़ुदी के बदले तलब की जो बे-ख़ुदी मैं ने छलकता साग़र-ए-मय पी के चश्म-ए-साक़ी से सिखाई सारे ज़माना को मय-कशी मैं ने बहार-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ न क्यों लहद हो मिरी कि जम्अ' की है ज़माने की बेकसी मैं ने बदल के रंग डराए न आसमाँ मुझ को मिज़ाज-ए-यार की देखी है बरहमी मैं ने बता के ऐब-ओ-हुनर शेर-गोई के 'अफ़्क़र' सिखाई अपने हरीफ़ों को शाइ'री मैं ने