रखते हैं मेरे अश्क से ये दीदा-ए-तर फ़ैज़ दामन में लिया अपने है दरिया ने गुहर फ़ैज़ पुर-नूर अजब क्या है करे मुझ को करम से रखती है दो आलम पे तिरी एक नज़र फ़ैज़ इक जाम पे बख़्शे है यहाँ रुत्बा जिस्म को किस की निगह-ए-मस्त से रखता है ख़ुमर फ़ैज़ महरूम नहीं कोई तिरे ख़्वान-ए-करम से है हस्र ख़ुदाई का ही तुझ पे मगर फ़ैज़ 'चंदा' रहे परतव से तिरे या अली रौशन ख़ुर्शीद को है दर से तिरे शाम-ओ-सहर फ़ैज़