क़तरा हूँ मैं वुसअ'त दे दरिया कर दे तू चाहे तो सागर को सहरा कर दे तल्ख़ी का एहसास मिटा दे दुनिया से या-रब तू हर पेड़ का फल मीठा कर दे ये ख़्वाहिश तो सदियों से है नस्लों की ख़ुद ज़ाहिर हो या मुझ को इफ़्शा कर दे ज़र्द चटानें काट रहा हूँ सहरा में गर्द की चादर फैला कर साया कर दे लाज बचा ले मेरी कज-दसतारी की बौनों की बस्ती में क़द ऊँचा कर दे ज़ंजीरों पर इतना भरोसा मत करना जोश-ए-जुनूँ में वहशी जाने क्या कर दे इंसाँ ख़ुद है ख़ालिक़ अपनी ज़रूरत का चलते चलते पगडंडी पैदा कर दे अब्र बने तो खारी पानी मीठा हो तेरी मशिय्यत जब चाहे जैसा कर दे मेरी मोहब्बत ज़ामिन है शादाबी की तेरी चाहत पत्तों को पीला कर दे रोने वालो ये भी तो हो सकता है ख़ून का छींटा क़ातिल को रुस्वा कर दे इतनी दूरी 'रम्ज़' है क्यूँ घर वालों में नफ़रत की दीवार गिरा रस्ता कर दे