रंग-ए-तस्वीर-ए-जहाँ को तिरा नक़्शा समझा ज़र्रे ज़र्रे को मैं इक हुस्न-ए-सरापा समझा महव-ए-हैरत जो तसव्वुर ने बनाया मुझ को अपनी तस्वीर को मैं तेरा सरापा समझा बे-ख़ुद-ए-जल्वा कभी और कभी हुशियार रहा कभी मा'बूद कभी ख़ुद को मैं बंदा समझा वा-ए-ग़फ़लत कि सराब-आसा न जाना उस को भूल इतनी हुई दुनिया को मैं दुनिया समझा दीदा-ए-तर ने उठाए वो शब-ए-ग़म तूफ़ाँ जो गिरा आँख से क़तरा उसे दरिया समझा