रंगीन ख़्वाब आस के नक़्शे जला भी दे जाँ पे बनी है रौशनी इस को बुझा भी दे नामूस-ए-ज़ब्त बोझ है कब तक लिए फिरूँ सारी उमीदें छीन के मुझ को रुला भी दे पहुँचा है किस की खोज में हद्द-ए-ज़वाल तक गुम हो गया है कौन तू उस का पता भी दे बेचारगी की रात के ग़ार-ए-सियाह से क़ैद-ए-सुकूत तोड़ के कोई सदा भी दे हर आइने पे वक़्त की उँगली के दाग़ हैं मिट जो सकें ये दाग़ तो इन को मिटा भी दे इस दश्त-ए-बे-गियाह में मजबूर हूँ खड़ा मंज़िल का कुछ निशान दे रस्ता बता भी दे जिस पे रुतों के हाथ की तहरीर है लिखी 'फ़िक्री' वो अपने जिस्म की दीवार ढा भी दे