रंज-ओ-अलम के बाब का उन्वान इश्क़ है ईसार के निसाब का उन्वान इश्क़ है अग़्यार का ख़याल जो दिल से निकाल दे हुरमत के उस सराब का उन्वान इश्क़ है महसूस आफ़्ताब की जिस से न हो तपिश गेसू के उस सहाब का उन्वान इश्क़ है हर दम तय्यार है जो कराए को सर क़लम ऐसे जरी शबाब का उन्वान इश्क़ है अंजाम गरचे तूर है ख़्वाहिश के बाब का दीदार बे-हिजाब का उन्वान इश्क़ है पहले गुज़र हो आग से पानी से ख़ाक से फिर जावेदाँ ख़िताब का उन्वान इश्क़ है ज़ुल्मात से निकाल के 'सहबा' जो नूर दे रौशन उसी किताब का उन्वान इश्क़ है