रक़्स करता है जहाँ तासीर में धुन है ऐसी हल्क़ा-ए-ज़ंजीर में काटता है वो चटानें उम्र भर डूब जाती हूँ मैं जू-ए-शीर में अब अँधेरों से कहो रुख़ मोड़ लें आ गया सूरज मिरी तक़दीर में वक़्त की दहलीज़ पर ठहरा हुआ क़ैद है लम्हा कोई तस्वीर में वो मिरी आँखों में आता ही नहीं तुम नहीं जिस ख़्वाब की ता'बीर में दर्द मीरा का उतर कर आ गया इश्क़ के चुभते हुए इक तीर में मेरे लहजे में है ख़ुशबू 'साहिबा' शोख़ी-ए-गुल खुलती है तफ़्सीर में