रक़्स करती जा रही है नीम-उर्यानी हवा मोह लेती है दिल-ए-इंसान शैतानी हवा सब्त करती है निशाँ होंटों के ग़ुंचों पर कभी ज़ेहन की डाली को सहलाती है रूमानी हवा काले कोसों से गुज़र कर बस्तियों में ठहर कर ताज़गी देती रही है सब को मस्तानी हवा दश्त-ओ-बस्ती के अमल से है ये वाक़िफ़ इस लिए दश्त पर बरसा के जाती है सदा पानी हवा ख़ुश्क झीलें हैं कहीं पर है कहीं तपती ज़मीं और कहीं सैलाब लाती है ये तूफ़ानी हवा बख़्श देती है किसी को ज़िंदगानी और फिर रूठ जाती है किसी के तन से दीवानी हवा ज़र है जब तक साथ रहती है 'क़मर' ये शौक़ से मुफ़्लिसी में रूठ जाए जानी-पहचानी हवा