रसाई सई-ए-ना-मशकूर हो जाए तो क्या होगा क़दम रखते ही मंज़िल दूर हो जाए तो क्या होगा तजल्ली ख़ुद हिजाब-ए-नूर हो जाए तो क्या होगा ब-ज़ाहिर भी कोई मस्तूर हो जाए तो क्या होगा हक़ीक़त में कोई महजूर हो जाए तो क्या होगा नज़र से दूर दिल से दूर हो जाए तो क्या होगा अभी तो आरज़ी है दोस्त बन कर दुश्मनी करना जो दुनिया का यही दस्तूर हो जाए तो क्या होगा ये सब से छुप के ख़ुद को आइने में देखने वाले नज़र ख़ल्वत में बर्क़-ए-तूर हो जाए तो क्या होगा लिए जाता है अज़्म-ए-तर्क-ए-उल्फ़त उन की महफ़िल में नज़र उठते ही दिल मजबूर हो जाए तो क्या निज़ाम-ए-आशिक़ी क़ाएम है उन की बे-नियाज़ी से किसी की इल्तिजा मंज़ूर हो जाए तो क्या होगा हर इक को 'कैफ़' तुम क्यों अपना अफ़्साना सुनाते हो ग़म-ए-उल्फ़त ग़म-ए-जम्हूर हो जाए तो क्या होगा