रस्ते लपेट कर सभी मंज़िल पे लाए हैं खोए सफ़र ही बाँध के साहिल पे लाए हैं पहले तो ढूँढ-ढाँढ के लाए वजूद को और फिर हँका के ज़ात को महमिल पे लाए हैं उठती है हर फ़ुरात में इक मौज-ए-इज़्तिराब जब भी वो कारवाँ रह-ए-क़ातिल पे लाए हैं साहिल की रेत से कभी जिस की बनी नहीं उस को समुंदरों के मुक़ाबिल पे लाए हैं दिल डर गया था वस्ल की हिद्दत को सोच कर इज़्न-ए-ख़याल को रह-ए-कामिल पे लाए हैं