रस्तों पे न बैठो कि हवा तंग करेगी बिछड़े हुए लोगों की सदा तंग करेगी आसाब पे पहरे न बिठा सुब्ह-ए-सफ़र है टूटेगा बदन और क़बा तंग करेगी मत टूट के चाहो उसे आग़ाज़-ए-सफ़र में बिछड़ेगा तो इक एक अदा तंग करेगी इतना भी उसे याद न कर शाम-ए-ग़रीबाँ महकेगी फ़ज़ा बू-ए-हिना तंग करेगी ख़्वाबों के जज़ीरे से निकलना ही पड़ेगा जिस सम्त गए बू-ए-क़बा तंग करेगी पुर-हब्स शबों में अभी नींदें नहीं उतरीं नींद आई तो फिर बाद-ए-सबा तंग करेगी ख़ुद-सर है अगर वो तो मरासिम न बढ़ाओ ख़ुद्दार अगर हो तो अना तंग करेगी