रात दिन महबूस अपने ज़ाहिरी पैकर में हूँ शोला-ए-मुज़्तर हूँ मैं लेकिन अभी पत्थर में हूँ अपनी सोचों से निकलना भी मुझे दुश्वार है देख मैं किस बे-कसी के गुम्बद-ए-बे-दर में हूँ देखते हैं सब मगर कोई मुझे पढ़ता नहीं गुज़रे वक़्तों की इबारत हूँ अजाइब-घर में हूँ जुर्म करता है कोई और शर्म आती है मुझे ये सज़ा कैसी है मैं किसी अरसा-ए-महशर में हूँ तुझ को इतना कुछ बनाने में मिरा भी हाथ है मेरी जानिब देख मैं भी तेरे पस-मंज़र में हूँ मेरा दुख ये है मैं अपने साथियों जैसा नहीं मैं बहादुर हूँ मगर हारे हुए लश्कर में हूँ कौन मेरा पूजने वाला है जो आगे बढ़े मैं अकेला देवता जलते हुए मंदर में हूँ