रात की रात पड़ाव का मेला कोच की धूल सवेरे महल मकान कुटिया छप्पर सब बंजारों के डेरे सूरज ढलते ही गलियों में फ़ित्ने जाग उठते हैं रयन नहीं जब अपने बस में कैसे रैन-बसेरे वो तो हम से सादा दिलों का हश्र यही होना था वर्ना तुम से तर्क-ए-वफ़ा के हीले थे बहुतेरे जान बचेगी तो पहुँचेंगे दाद-रसों के घर तक गली गली में मोड़ मोड़ पर ठग हैं रस्ता घेरे चल 'क़ैसी' मेले में चल क्या रोना तन्हाई का कोई नहीं जब तेरा मेरा सब मेरे सब तेरे