रौनक़ जहाँ की सच है फ़क़त आदमी से है लेकिन निज़ाम-ए-दहर भी बरहम उसी से है यकसाँ मोआ'मला कहाँ सब का सभी से है नफ़रत किसी से है तो मोहब्बत किसी से है मेरे हर एक शे'र में है आप की झलक वाबस्ता मेरी शायरी बस आप ही से है मरता है कोई भूक से उस की किसे ख़बर सब को ग़रज़ बस अपनी शिकम-परवरी से है रौनक़ तुम्हारी बज़्म में पहले कहाँ ये थी सारी चहल-पहल मिरी मौजूदगी से है उस को नसीब चैन-ओ-सुकूँ क्या हो ऐ ख़ुदा बेज़ार जिस का क़ल्ब तिरी बंदगी से है दाना की दुश्मनी से तो ख़तरा नहीं कोई नादान दोस्तों की मगर दोस्ती से है मरना भी चाहता नहीं 'ताबिश' कोई यहाँ शिकवा भी सुब्ह शाम मगर ज़िंदगी से है