रौशनी ले के कहीं चाँद कहीं तारों से हम भी गुज़रे थे कभी वक़्त के बाज़ारों से ज़िंदगी तुझ से तिरे ग़म से तो इंकार नहीं हाँ मगर लज़्ज़त-ए-ग़म छिन गई ग़म-ख़्वारों से अज़्मत-ए-रफ़्ता की मिटती हुई तस्वीर हैं हम हम को लटकाइए गिरती हुई दीवारों से इस से पहले कि छिड़े ज़िक्र-ए-वफ़ा प्यार की बात मशवरा कर लो ज़रा वक़्त की सरकारों से चाँद जिस वक़्त उतर आता है पैमानों में मय-कदे बात किया करते हैं मय-ख़्वारों से हम को बे-दाम भी बिक जाने का फ़न आता है बात कहने की नहीं है ये ख़रीदारों से वही तन्हाई की बातें हैं वही ज़ात के ग़म मुझ को शिकवा है मिरे दूर के फ़नकारों से अब्र-ए-रहमत को लिए अपनी नज़र में 'ख़ुसरव' हम भी तो दश्त से गुज़रे कभी कोहसारों से